Friday, November 25, 2011

Peace in conflict (संघर्ष में शांति)

संघर्ष में शांति

         संघर्ष का नाम हि जीवन है | जिस जीवन ने कभी संघर्स का सामना नहीं किया, और जो व्यक्ति अथवा जाती संघर्ष से डरती रहती है और संघर्स से बचने के लिए दूर रहना चाहती है उसे मृतक के सामानही समझना चाहिए अँग्रेजी की कहावत है की इस प्रकृति के संग्राम में जो बचने के योग्य होता है वह हि बचता है | क्योंकि संग्राम बिना संघर्ष के होना असंभव है | परन्तु साधारण मनुष्ये समझते है संघर्ष तो शांति का घातक है और अशांति का कारण है- यह कहना सर्वथा तो मिथ्या नहीं कहा जा सकता पर इसमें गलती जरुर है, क्योकि बिना संघर्ष के शांति नहीं मिलती किन्तु म्रत्यु की गोद में हि सोना समझिए | नदी में सदा पानी का बहता रहना हि उसकी शोभा है, जहा पानी का स्तोत्र बंद हुवा , उसके जल में दुर्गन्ध आने लगती है | मनुष्ये जीवन भी एक नदी के समान ही है | परन्तु जब उस नदी में बाढ़ आजाया करती है तब हजारों गांवों को बर्बाद भी कर सक्ती है , इसलिए उसका वेग संयम के भीतर ही बहता रहे तो उससे लाखो जीवो को प्राण दान मिलता है | इसी तरह हमारा जीवन संघर्ष संयम की सीमा के भीतर हि रहना चाहिए , जो अपने जीवन में संयम रखना नहीं जानते , उनको तो अशांति का हि मुख देखना पड़ता है | परन्तु संयम युक्त संघर्ष में अशांति कहा ? वह वीर युद्ध क्षेत्र में लड़ता हुवा सदा शांत रह सकता है | इसलिए अब हम यह नतीजा निकालते है कि संयम सहित संघर्ष से शांति और संयम रहित संघर्ष में अशांति होती है | जो मनुष्ये अपने जीवन को अशांत और दुःखपूर्ण पाते है उनको समझ्लेना चाहिए की वे संसार युद्ध में कुसल योधा नहीं है , वे अपने सामर्थ्य और योग्यता से ठीक ठीक काम लेना नहीं जानते, आवेश में आकार या मोहान्ध होकर अपने कार्यों में प्रवर्त होते है ; बुद्धि धैर्य , उत्साह और दूरदर्शिपना नहीं होता | ऐसे लोग मेहनत करते है और उनकी शक्ति बाढ़ आई नदी के भांति व्यर्थ बह जाती है और प्राय: अशांति और दुखो का कारण बन जाती है | संघर्ष से डर कर दूर भागना म्रत्यु का आव्हान करना है | वीर वही है जो संघर्ष का सदा आव्हान करता है और कुशलता पूर्वक उस पर विजय प्राप्त कर आनंद मनाता है | उसके लिए संघर्ष भय की वस्तु नहीं होती वरन वह उसको अपने अमोद प्रमोद का विषय समझता है |

         एक आदमी काम पर अपनी रोती सी सकल लेकर जाता है , मन में उत्साह नहीं होता , शरीर में मनो बल हि नहीं है , कामपर जाकर बैठ कर ऊँघा करता है अथवा अपने फूटे कर्मो को रोया करता है | क्या ऐसे मनुष्ये को शांतिदेवी अपने हास्येपूर्ण आशीर्वादसे भरे कृपाकटाक्ष का पात्र समझ सकती है ? कदापि नहीं | इसके विपरीत दूसरा हँसता कूदता अपने कार्ये को मनोरंजन का विषय समझता है, शौक से, उत्साह से कठिन से कठिन कार्ये को आसानी तुरंत कर डालता है और अपनी कुशलता पर खुस होता है तथा अपने साथियों और मालिकों का भी उत्साह बढा देता है | ऐसे हि मनुष्ये इस संसार संघर्स में रहने के उपयुक्त है और वे हि शांतिदेवी के प्रिये पात्र है , उनको हि जीवित समझाना चाहिए , नहीं तो इस संसार रूपी चक्की से कोई नहीं बच सकता| वीर पुरुष चट्टान के समान दृढ और शांत रहता है जिस पर समुद्र की लहरे हजार बार टक्कर खाती है , और लोट जाती है | इस संसार सागर की विषम लहरे इस धीर मनुष्ये के शांत चित्त को इस प्रकार हिलाने में सफल नहीं होती है | इसलिए यदि आप जीवन में शांति पाना चाहते है तो वीर बनो , धीर बनो, भय मुक्त रहो , संघर्स करो ,इश्वर को साक्षी मान कर अपने कार्ये में स्थिर रहो सफलता आपके कदम चूमेगी |

Wednesday, November 23, 2011

विचार ओर संकल्प

विचार ओर संकल्प

इश्वर की पूरी शक्ति को पूर्णरूप से समझ लेना आसान कार्य नहीं है इश्वर सारे जगत का श्रसटा , नियंता और स्वामी है और उसकी तह तक पंहुचना हमारे लिए असंभव है | हमें सारी शक्तिया उसीसे प्राप्त होती है हम उस विश्व शक्ति के एक केन्द्र मात्र है हममें जो कुछ शक्ति और सत्ता है , सब उसी की देंन है, सब उसी का प्रसाद है, हमारा अपना व्यक्तित्व भी उसी की छाया है |

यद्यपि हम उस विश्व शक्ति की रूपरेखा के बारे में कुछ नहीं जानते परन्तु इतना अवश्ये जानते है की विश्व शक्ति मनुष्ये में दो शक्तिया जन्म से देकर भेजती है १ विचार शक्ति २ शंकल्प शक्ति | जगत की रचना और विकाश इन्ही दो शक्तियों के सहारे होता है और यह दोनों शक्तिया इस रचना और विकाश के लिए जरुरी है , इनमे से किसी एक की कमी से भी विकाश और रचना का क्रम एकदम रुक जायेगा |

विचार शक्ति स्वंम अफाहिज है , यह सोच सकती है मानसिक ढांचे बना सकती है, कल्पना कर सकती है , परुन्तु वस्तु जगत में किसी महान परिवर्तन करने की क्षमता इसमें नहीं है | इसी तरह शंकल्प शक्ति स्वयम अंधी है ,उसे स्वयं अपना रास्ता नहीं दिखाई देता वह टटोलो टटोल कर चलती है, और टक्करे खाती फिरती है | विचार शक्ति के संयोग और सहयोग से ही उसे निर्माण शक्ति प्राप्त होती है जिसके सहारे वह वस्तु जगत में बड़े बड़े परिवर्तन करने में समर्थ होती है|

स्रष्टि के विकाश के आदि-अवस्था में संकल्प शक्ति की प्रधानता का परिचय मिलता है, परन्तु जैसे ही प्रक्रति संस्कृति को प्राप्त होती जाती है उत्तरोत्तर विचार शक्ति का प्राधान्य बढ़ता जाता है | और मनुष्ये के दर्जे पर पंहुच कर तो यह प्रधानता बिलकुल स्पष्ट हो जाती है और यह समझा जाता है की मनुष्ये और पशुओ में भेद करने वाली वस्तु यह बुद्धि है |

परन्तु मनुष्ये में जो विशेषता है वह उसकी चेतना विचार शक्ति में है | इसका अर्थ यह नहीं है की मनुष्ये के निचे श्रेणी के जानवर और पख्सियो में विचार शक्ति होती ही नहीं | सच तो यह है की अन्ये मानसिक क्रियाओ की तरह हमारी विचार शक्ति के निचे भी कई धरातल है | अचेतन,अर्द्धचेतन, सचेतन और उर्ध्वचेतन , विकाश के आदि में अचेतन विचार शक्ति के हाथ में नियंत्रण रहता है, और धीरे धीरे विकाश में वही विचार शक्ति केन्द्रीभूत होकर अर्द्ध चेतन अवस्था में गुजर कर सचेतन होजाती है | इस सचेतन अवस्था में कार्यक्रम की बागडोर अचेतन और जड से निकल कर सचेतन के हाथ में पंहुच जाती है , और इस अवस्था में बुद्धि का प्रधान्ये होता है परन्तु यह विकाश की अंतिम सीडी नहीं है | इसके आगे भी एक उर्ध्व चेतन अवस्था है, जिसको योगी लोग समाधी के नाम से पुकारते है , और इस अवस्था में नेतृत्व बुधि से निकलकर बोधि के हाथ में चला जाता है |

विकाश के प्रत्येक स्थल पर विचार शक्ति का अस्तित्व मानना अनिवार्य है| केवल संकल्प के सहारे विकाश का काम नहीं चल सकता , कारण की संकल्प में केवल शक्ति ही शक्ति है उस शक्ति का उपयोग किस प्रकार से किया जाये की उसमे विकाश का कार्ये अग्रसर हो सके यह जानने की शक्ति उसमें नहीं है |

बाह्य परिस्थिति को चेतन अथवा अचेतन रूप से समझ कर ही संकल्प शक्ति अपना कार्येक्रम निश्चित कर सकती है | संकल्प शक्ति के विकाश हेतु प्रथम सीडियों कोई स्वतंत्र क्रिया नहीं होती , केवल प्रतिक्रिया होती है ,और शक्ति का रूप जो इस प्रतिक्रिया में प्रति बिम्बित होता है बिना विचार शक्ति के संभव नहीं है |

जिस तरह विचार शक्ति के चार धरातल है –अचेतन, अर्धचेतन, सचेतन, उर्ध्वचेतन इस तरह शंकल्प शक्ति के भी चार धरातल है | इन चारो धरतालो को आधुनिक पश्चिमी मनोवेज्ञानिक Unconscious , Sub conscious , conscious or Super conscious States of mind कहते है और इन्ही को हमारे प्राचीन मुनियो ने सुषुप्ति, स्वप्न, जाग्रत, और समाधी कहा है | वास्तव में यह हमारे मनस्तत्व की अवस्थाये है , उसके समस्त जीवन में चाहे वे विचार शक्ति से सम्बन्ध रखता हो अथवा संकल्प शक्ति से सदेव ही अपनेको प्रति बिम्बित करता रहती है | यदि पशु मनुष्ये की तरह सोचता नहीं , तो उसकी प्रतिक्रिया भी मनुष्ये की तरह नहीं होती | दोनों में सचेतन भाव का अभाव रहता है |अर्थात जिस ऊंचाई और मानसिक विकास के धरातल पर मनुष्ये या पशु जाती की विचार शक्ति पंहुचती है उसी के अनुसार उसी धरातल पर उस जाती की संकल्प शक्ति भी पंहुच जाती है |

संसार के तत्व-वित्त विचार शक्ति का पख्स ले ल्रे कर बहुत दिनों से आपस में विवाद करते आए है | किसी ने विचार को प्रधानता दी है किसी ने सकल्प को | किसी ने यह प्रमाणित करने का प्रयाश किया है की संकल्प केवल विचारशक्ति का ही एक रूप है, और इसके विपरीत किसी ने यह सिद्ध करने की चेष्टा की है की विचार शक्ति भी संकल्प सकती का ही एक रूप है |

इन दोनों परस्पर विरोधी विचार धाराओ में अंसिक सत्ये वर्तमान है | पूर्ण सत्ये किसी में भी नहीं है | क्योकि यह दोनों विचार धराए विचार को संकल्प से और संकल्प को विचार से प्रथक करके देखती है | वास्तविक जीवन में संकल्प और विचार पृथक पृथक नहीं है , और न उनको पृथक करके देखा जा सकता है | प्रत्येक विचार के भीतर अपने को प्रकट करने की शक्ति निहित होती है , उसका जीवन विस्तार चाहता है और वह बहए जगत पर अपनी छाप लगाना चाहता है

संसार की गाड़ी इन्ही दो पहियों पर चलती है – एक विचार सकती का और दूसरा संकल्प शक्ति का | मनुष्ये के जीवन में भी सफलता की कुंजी इन दोनों के हाथ में है | मनुष्ये का काम है किसी विचार शक्ति और शंकल्प सक्ती दोनों कोजग्रत करे | बिना विचार शक्ति के संकल्प शक्ति अंधी है , और बिना संकल्प शक्ति के विचार शक्ति अफाहिज है |

इन दोनों के पारस्परिक संयोग और सहयोग में ही उत्थान और सफलता का रह्श्ये है | यदि विचार शक्ति संकल्प शक्ति के सहयोग में कार्ये नहीं करती , तो कोरी कल्पना बन कर रह जाती है , वास्तु जगत को प्रभावित करने की क्षमता उसमे नहीं आती,और थोड़ी सी उन्नति करके एक पंख पर उड़ने वाली चिड़िया की तरह दोचार आदमक चलकर ही गिर जाती है | इसी तरह संकल्प शक्ति भी विचार शक्ति का सहयोग नहीं पाकर अंधी रहती है और उसे अपना मार्ग नहीं सूझता | टेली के बेल की तरह निरंतर चलते रहने पर भी वह अपने को वही पर पाती है जहा से चली थी | उसका सारा परिश्रम सारा त्याग व्यर्थ जाता है | अत: इन दोनों सक्तियो को जगाना ही प्रयाप्त नहीं है , परन्तु इनका अछी तरह संचालन और नियंत्रण में रखना आवश्यक है की इनको एक दूसरे से सहायता मिल सके एक से दूसरी का उन्नति का मार्ग स्पशट होता रहे अन्यथा वांछित सफलता मिलना कठिन है |

ये विश्व शक्ति सत्ता का भंडार है, जो विचार और संकल्प का आश्रय है; जिससे हम पैदा होते है , जिसमे हम रहते है, और जिसमे हम अंत में लय हो जाते है ; जिसके की हम केन्द्र मात्र है; उससे हम व्यक्तित्व कि अक्षय शक्ति, जो विचार और संकल्प के सम्बन्ध संयोग से बनती है , किन साधनों से प्राप्त कर सकते है | यही हमारे सामने मुख्य प्रश्न है | इनका उत्तर हमको ढूँढना है |

Monday, November 21, 2011

Power of Positive Thinking

तुलसी दास जी ने कहा है " शकल पदारथ है जग माहि , कर्म हीन नर पावत नाही " 

योग शास्त्र का यह एक वैज्ञानिक और ठोस सिद्धांत है जो व्यक्ति अपने मन में लगातार किसी एक विषय पर लगातार सोचता है तो ऐसा समझे, कि वो बीज बुवाई का कार्य कर रहा है | उसके द्वारा जिस विषय पर चिंतन किया गया है वो सूक्ष्म रूप से उसके अंदर पलने लगेगा और एक दिन स्थूल रूप में उसको वो प्राप्त होगा | ऐसा कभी हो ही नहीं सकता व्यक्ति जिस विषय के बारे  में विचार करे उसको स्थूल रूप से ना मिले  |

विचार भावना और चिंतन, यह ध्यान कि अपूर्ण अवस्था है | इनमे जब द्रड़ता आती है | येही  अवस्था ध्यान बन जाती  है | और ज्ञानी पुरुष इसी ध्यान को चिंतामणि कहते है यह यथार्थ सत्य है | क्योंकी  चिंतामणि को हाथ में रखकर जिस वास्तु कि इच्छा कि जाये वह वस्तु तत्काल प्राप्त हो जाती है | वैसे ही इस ध्यानरूपी चिंतामणि से मनुष्य को मनचाही वस्तु मिल सकती है | किन्तु इस ध्यान रूपी चिंतामणि को कुछ लोग ही जीवन में सकारात्मक रूप से उपयोग करते है  क्यों की  ज्यादातर लोग तो इस विषय कि जानकारी भी  नहीं रखते है | और नकारात्मक सोच के लोग इसी ध्यान रूपी चितामणि दुरपयोग कर दुखी रहते है | ऐसे लोग, जो चाहिए उसका चिंतन नहीं करते अपितु जो नहीं चाहिए उसका चिंतन करते है |   जैसे मेरे ऊपर कर्ज है में दुर्भाग्यशाली हूँ ऐसा सोचने पर यह भी एक प्रकार का अक्रिय ध्यान ही हुवा इसकी वजह से उसके जीवन में कर्ज और दुःख स्वत: ही आने लगते है |

मन एक ऐसा यंत्र है | जिसमे प्रति क्षण कोई न कोई विचार आते ही रहते है | मन विचार करे बिना एक क्षण भी मुक्त नहीं रह सकता | इस प्रकार ध्यान रूपी चिंतामणि प्रत्येक मनुष्ये में जन्म से ही उपलब्ध है इसका सही उपयोग करके जीवन के हर लक्ष्य को आसानी से पाया जा सकता है जीवन कि आकांक्षाये व इच्छाए सहज में ही सफल होती है |

सारांश यह है कि मनुष्ये अपनी भावना और विचारों के अनुसार दु:खी या सुखी , सफल या असफल होता है | यंहा मनोभाव व विचार का कारक मन है अत: मन को सुधारना मानव का पहला कर्तव्ये है | हमारा मन किन विषयो पर चिंतन करता रहता है उस पर ध्यान देना आवश्यक है कि कही वो नकारात्मक तो नहीं सोच रहा है यदि आज तुम निर्धन, बीमार या दब्बू हो एवं अपने विचारों को प्रकट करने कि शक्ती तुम में नहीं है तो निश्चित समझो कुछ समय पहले यह विचार व चिंतन तुमने अवश्य ही किया होगा उसी का परिणाम है जो आज तुम भुगत रहे हो | तात्पर्य यह है कि सूक्ष्म रूप में किसी विषय पर सोचे बगेर स्थूल रूप में वो जीवन में आ ही नहीं सकती | यही अध्यात्म विद्या का त्रिकाल बाधित अनुभव सिद्ध अटल सिद्धांत है |यह सम्पूर्ण स्रष्टि इश्वर के मन में सूक्ष्म रूप में विध्येमान थी | इश्वर के संकल्प बल से प्रगट हुई है | ऐसे ही प्रथ्वी पर बड़े बड़े शहर, मकान, बगीचे, रेल, विमान, टेलीफोन, कंप्यूटर, इन्टरनेट आदि नए नए आविष्कार  हुए |पहले इन्हें बनाने हेतु वैज्ञानिको के मन में सूक्ष्म रूप से विचार आये तत्पश्चात प्रगट रूप में वो इन्हें खोज पाए इसी सिद्धांत को भगवान कृष्ण ने गीता में इस प्रकार बताया है :-

“नासतो विद्यते भावो नाभावो विध्यत: सत्:”

अर्थात इस जगत में जो पदार्थ किसी भी रूप में बिल्कुल है ही नहीं वो कभी अस्तित्व में आ ही नहीं सकता | और जो पदार्थ विध्येमान है उसका अत्यंत अभाव या नाश हो ही नहीं सकता | इसलिए तुम अपने मन में हमेशा आशा, उत्साह, दर्व्ये, सम्पति, बल, सामर्थ्ये आदि विषयो का दृढ चिंतन करते रहो | निश्चय समझो एक दिन स्थूल रूप धारण कर ये सभी तुम्हे प्राप्त होंगे ही | दुनिया कि कोई शक्ती ऐसा होने में अड़चन नहीं डाल सकती है|

किसी वस्तु विशेष को यदि तुम जल्दी प्राप्त करना चाहते हो तो उस वस्तु का नाम कागज पर लिख कर अपने पूजा रूम में लगादो और २० मिनट उसी का चिंतन करो और सोचो मह्शूस करो अमुक कार्ये , अमुक वस्तु मुझे मिलने ही वाली है कुछ समय बाद वो अमुक कार्ये होगा ,अमुक वस्तु मिल जायेगी { शुरू में कोई भी वस्तु या कार्ये अपनी पहुँच तक काही सोचे } जब एक कार्ये होजाये तब दूसरे के लिए विचार करे |

Prashanavli of Ram Shalaka

Friday, November 18, 2011

How to make your brain strong?

मानव का मन महान शक्तियों का बहुत बड़ा भंडार है( Dynamo of Creative Energy) | एक से बढकर एक शक्तिया इसमें निवास करती है | छोटे, बड़े, विद्वान और मुर्ख सभी को बीज रूप में परमात्मा ने यह शक्तिया दी है | जो मानव इनको जाग्रत करके इनका उपयोग करते है वो महामानव बनते है | अगर मुर्ख से मुर्ख व्यक्ति भी इनको जाग्रत करे तो वो भी बुद्धिमान बन जाता है | इनको जाग्रत करके बड़े चमत्कार किये जा सकते है | असंभव दिखने वाले कार्यों को भी सहजता से किया जा सकता है |मानसिक शक्तियों का प्रदर्शन परिपुष्ट मष्तिष्क द्वारा ही किया जा सकता है | उत्तम मष्तिस्क द्वारा ही मन अपने अदभुद सामर्थ्यो का प्रदर्शन कर सकता है |

आप मष्तिष्क को केवल एक अतिसूक्ष्म यंत्र या डायनेमाँ समझ लीजिए | बिजली पैदा करने वाले डायनेमाँ के भाति मष्तिष्क विचार उत्पन्न करता है |हमारे मष्तिष्क के विभिन्न भागो में भिन्न भिन्न शक्तियों के सूक्ष्म केंद्र है | कुछ शक्तियों का केन्द्र मष्तिष्क के अग्र भाग में और कुछ का मध्य भाग में और कुछ का पृष्ठ भाग में है | मष्तिष्क के जिस भाग में यह शक्तिया निवास करती है उस भाग में स्थित कोषो(Cells) की संख्या के परिणाम में यह शक्तिया कम या ज्यादा होती है |सेल्स की संख्या को बढ़ाने हेतु मस्तिस्क के उस भाग पर ध्यान करे व भावना करे की शरीर की सारी शक्ति उस भाग को उन्नत कर रही है | रक्त संचार उस भाग में ज्यादा हो रहा है एसी भावना करने से मष्तिष्क के उस भाग की कोशिकाए सक्रीय हो जायगी व उस भाग से सम्भंदित शक्तियों का विकास होने लगेगा | मस्तिष्क के जो भाग निक्कमे छोड़ दिए जाने के कारण निष्क्रिय हो जाते है उन्हें भी इस प्रकार जाग्रत किया जा सकता है |

मष्तिष्क को शक्तिशाली बनाने के लिए तीन चीजे जरुरी हैं :


१ उत्तम व पूर्ण परिपुष्ट मष्तिष्क


२ मानसिक शक्तियों का यथार्थ ज्ञान


३ मानसिक शक्तियों का पोषण और संचय


१ भक्तिभाव पूजाभाव श्रधा भाव शक्तियों का केन्द्र मष्तिष्क मुर्धन्य है | जिन लोगोकी मूर्धा में यह कोष कम होते है उन लोगो में गुरुजनों व् इश्वर में विश्वास कम रहता है |

२ जो शक्तिया कपाल के निचे अर्ध भाग में निवश करती है, वे विद्या कला खोज से सम्बन्धित है जिनमे यह विकशित होती है वे लोग निरर्थक बाते नहीं करते है व्यवस्था पूर्वक कार्ये करते है | किसी कार्ये को एक बार हाथमे लेकर छोड़ते नहीं बल्कि पूरा करते है | यद्धपि उनमे तर्क वितर्क करने की क्षमता नहीं होती, किन्तु फल प्राप्त करने की सामर्थ्ये रखते है | यदि आप इन शक्तियों को बढ़ाना चाहते है तो आप कपाल के निचे अग्र भाग के कोशो की वृधि करे, आप अपनी चित्तवृति मस्तिष्क के मध्ये बिंदु पर एकाग्र करे | निरंतर सोचने से उस भागमे कोशोकी वृधि होगी और वो भाग पुष्ट होने से इन शक्तियों का विकास होगा |

३ कपाल के ऊपरी आधे भाग में बुद्धि की शक्तिया अपना कार्ये करती है | इस भाग का विकास करने के लिए मस्तिष्क के मध्ये बिंदु पर एकाग्र कीजिए | निरंतर सोचने से उस भाग में रुधिर की गति बढ़ेगी व एकाग्रता से वह भाग पुष्ट होने लगेगा कपाल के ऊपरी आधे भाग में बुद्धि की अपनी शक्तिया काम करती है | इस भाग का विकास करने के लिए मष्तिष्क के मध्ये बिंदु से कपाल के ऊपर के अर्द्ध भाग तक रहने वाले सूक्ष्म द्रव्यों पर एकाग्रता करनी चाहिए | इस भाग के कोशो की वृधि से बुद्धि की शक्ति बढती है और विषयो को समझने की शक्ति में वृधि होती है | नित्ये अभ्यास से उसकी शक्ति इतनी बढ़ जाती है की व्यक्ति जिस विषय पर सोचता है उस विषय पर आर से पार सोच सकता है |

४. कान के छिद्र के आगे से सिर की चोटी तक एक खड़ी सीधी रेखा खिचिए जहा पर इसका अंत होगा उसके ठीक पीछे के भाग में श्रद्धा , द्रड़ता ,आत्मबल और विश्वाश आदि दिव्य शक्तिया निवास करती है | इन पर एकाग्रता करने से यदि कोष कम होंगे तो अधिक हो जायेंगे |दुर्बल होंगे तो सबल हो जायेंगे | और बलवान होंगे तो और बलवान हो जाएंगे |

५ मस्तिस्क के निचे, पीछे के भाग में प्रयास करने से सामर्थ्ये शक्ति बढती है | जिस व्यक्ति में यह शक्ति विकसित अवस्था में होती है वो किसी काम को करने से पीछे नहीं हटता वो किसी भी काम को कठिन समझ कर योही नहीं छोड़ता क्योंकि उसे लगातार मस्तिष्क के उस भाग से सहारा मिलता है |

६ कपाल के ऊपर के भाग के भाग में जहा अंदर से बलों की जड़े शुरू होती है यह ज्ञान है की कब किस मोके पर क्या करना चाहिए इस निरिक्स| इस निरिख्सन शक्ती को जाग्रत करने के लिए पूर्व कथनानुसार एकाग्रता करके वह के कोशो को परिपूर्ण और पुस्त करना चाहिए कठिन से कठिन गुत्थी भी इस क्रिया शक्ती से आशानी से सुलझाई जा सकती है

७ मष्तिस्क की बिचली सतह से नाडीयो के १२ जोड़े निकलते है प्रत्येक जोड़ी शारीर को कुछ न कुछ ज्ञान देता है ये नाडीया गर्दन को विशेष सन्देश भेजती है जिससे हमें कुछ न कुछ नवीन बात मालूम होती है इच्छा शक्ती का यथार्थ स्थान कहा है इसका उत्तर ओ ह्ष्णुहारा नमक लेखिका ने अपनी पुस्तक (concentration and the acquirement of personal magnetism ) में इस प्रकार दिया है –

मेरी सम्मति में इच्छा अथवा संकल्प शक्ती का स्थित स्थान नाडीयो के उस तेजस्क ओज के भीतर निस्चित किया जासकता है जो मष्तिष्क को चारो और से घेरे हुए है अत: संकल्प शक्ती के विकाश के लिए यहाँ के कोसो की वृधि कीजिये |

मष्तिष्क के विभिन्न कोशो पर एकाग्रता करने परसे हमारे रुधिर की गति उस और होने लगती है और उनकी संख्या में वृधि और विकाश होता है |कोई भी कोष हो बढ़ाने जरुरी है यदि ये सब बढे तो उत्तम है अत: किसी विशेष भाग के कोष बढावे ऐसा न सोचकर इस भावना पर मन एकाग्र करे की हमारे मष्तिष्क के सब कोष निरंतर बढ़ रहे है हमारी निरीक्षण शक्ती , तुलना शक्ती, न्याय शक्ती ,विवेक शक्ती ,संकल्प शक्ती सभी को बढारहे है | यह भाव मात्र उपरी दिखावा मात्र नहीं होकर पूर्ण अनुभूति युक्त होना चाहिए उस समय अपनी कल्पना द्वारा वैसा ही अनुभव करना चाहिए | साधको को प्रारंभ में आत्म स्वरुप की भावना करनी कभी नहीं भूलनी चाहिए |

कोशो की वृधि की क्रिया जमींन जोतकर करने के समान है| जिस प्रकार उत्तम रीती से जोते हुए खेत में बीज अछे उगते है उसी प्रकार के कोष वाले मष्तिष्क में मानसिक शक्तिया उत्तम रीती से विकसित होती है इसलिए जिस प्रकार की शक्ती को हम विकसित करना चाहते है उसका यथार्थ रूप हमारे लख्श्य में रहना अनिवार्य है ध्याता में ध्यान करने की वस्तु के स्वरुप की यथार्थ कल्पना अत्येंत आवश्यक है योग शाश्त्र का यह अखंडनीय सिद्धांत है ध्यान करने वाला जिसका ध्यान करता है उसी के सामान हो जाता है | अत: मानसिक शक्तियों का विकाश करनेवाले जिस शक्ती का विकाश करना हो उसके स्वरुप को अच्छी तरह लक्ष्य में रखना चाहिए |

कल्पना कीजिये की हम अपने अंदर श्रधा भक्ति भाव अंतर्ज्ञान इत्यादि आध्यात्मिक शक्तिया का विकाश करना चाहते है | इन शक्तिय्यो के जाग्रत और विकसित होने का स्थान मूर्धा और इसके निचे का प्रदेश है | इन स्थानो मे एकाग्राता करते समय हम सच्ची भक्ति सच्ची श्रधा और अंतर्ज्ञान के जिस नमूने को सामने रखेंगे वही इसमें क्रमश प्रगट होने लगेगा | अत: जिस शक्ती के विकाश का हमने निश्चय किया है , उसके ऊँचे से ऊँचे स्वरुप की, जहा तक हमारी बुद्धि पहुच सके वहीतक कल्पना करनी चाहिए और उस कल्पना में व्रती को आरूढ़ करके पूर्वोक्त क्रिया श्रधा पूर्वक करनी चाहिए| इससे मष्तिष्क के कोष बढ़ेंगे शुद्ध होंगे और वह काल्पनिक शक्ती धीरे धीरे बढ़ने लगेगी |

तीसरी बात है सामर्थ्ये की | मन जिस सामर्थ्ये को परिपुष्ट होता है उस सामर्थ्ये की वृधि करने की भी आवश्यकता है | प्रत्येक मनुष्ये में यह सामर्थ्ये एक बड़े परिणाम में वस्तुत रहता है पर अधिकांस व्यक्ति इसका अधिकतर भाग निक्कमी क्रियाओं में योही नष्ट कर दिया करते है | बैठे बैठे पांव हिलाना , आँख नाक या गुप्तांग टटोलते रहना , सार रहित बाते सोचना, या योही बे मतलब की बाते करते रहना या सुपारी चबाते रहना आदि शरीर की निक्कमी क्रीयाये है | इनसे मन की सामर्थ्ये शक्ती का ह्रास होता है क्रोध, चिंता, भय आदि विविध विकारों से तो सामर्थ्ये का बड़ा नाश होता है| जो दिन भर की आय होती है नाराजगी में बह जाती है| संचित सामर्थ्ये का भी ह्र्राश होता है | अत: मानसिक शक्तियों के इछुक को सब प्रकार के खस्यो ख्सयो से बचने की आवश्यकता है| मन पूरी शांत स्थिति में रहना अनिवार्य है| वाणी और शारीर के सब व्यर्थ प्रपंच छोड़कर मन को शांत स्थिति रखने का प्रयाश करना चाहिए इससे हमारा बल संचय होता है और हमें एक अधभुत समर्त्ये का अनुभव होता है | जिस संस्कारी व्यक्ति को इस बल का अनुभव हो उसे चाहिए की अपनी योग्य उचित वातावरण खोज ले और निरंतर मानशिक शक्तियों को पूर्वोक्त प्रकार से संचित करता रहे |

मानशिक शक्तियों की अभिवर्धि के लिए अनुकूल संगती और परिस्थितियों की परम आवश्यकता है | अपने उधेश्ये के अनुकूल उचित वातावारण उपश्थित करो | जिस वातावारण में मनुष्ये रहता है वे ही मानशिक शक्तिया क्रमश: उत्पन्न और बढती हुई दिखाई देती है | जिस व्यक्ति के परिवारमे , मित्रोमे, मिलने झुलने वालो में कवी अधिक होते है , वे प्राय: कवी ही हो जाया करता है | सेनिको व सिपाहियों के कुल में ज्रहने वाला व्यक्ति प्राय: निडर हो जाया करता है| तुम जिस प्रकार की मानसिक शक्तियों का उद्भव चाहते हो वैसे ही व्यक्तियों में रहो , वैसी ही पुस्तकों का अध्यन करो , वैसे ही मनुष्यों के चित्र देखो और निरंतर वैसे ही चिंतन में मग्न रहो अपने अभीष्ट की भावना पर मन को एकाग्र कर गंभीरता पूर्वक स्थिर करो | उपयुक्त वातावरण में रहने से मानशिक व्ययामसे भिन्न भिन्न क्रियाओ के अभ्यास से , मन की शक्ती तीव्र हो जाती है |

Wednesday, November 16, 2011

make your brain stronger

मन को शक्तीशाली बनाने के तीन उपदेश :

१ यदि तुम अपने मन पर पूरा अधिकार रखोगे और उसमे किसी प्रकार के दुष्ट विकार या दोष आदि उत्पन्न न होने दोगे तो फिर तुम अपने भाग्य के स्वयं ही विधाता बन जाओगे इश्वर ने कभी दुर्भाग्य और विपत्ति आदि की गठरी बांध कर तुम्हारे सर पर नहीं रखी है |

२ मन को वश में करना बहुत ही कठिन साध्ये होता है और इसी से अध्यात्मिक उन्नति होती है किन्तु इसके लिए बहुत ही बड़े अभ्यास की आवश्यकता होती है और अभ्यास ही एक एसी चीज है जिसके द्वारा मनुष्य कठिन से कठिन और असंभव कार्ये को भी बड़ी आसानी से कर सकता है |

३ जब कोई आदमी अपने आपको दीन हीन भिखारी समझता है और उसी दीनहीन विचारों में मग्न रहता है तब तक वह सिवाय भिखारी होने के अलावा कुछ और हो भी नहीं सकता क्यों की जब तक कोई भी विफलता के विचार या भाव मन में रखता है तब तक उसे सफलता मिल ही नहीं सकती है |

Saturday, November 12, 2011

How to increase your will power ?

इस लेख का प्रिंट निकाल लेवे एवं इसको रोज सुबह जल्दी उठकर तीन बार पाठ करे और एकाग्र होकर इसका ध्यान करने से इच्छा शक्ति निरंतर बढती है और सभी कामो में सफलता मिलती है | इसके परिणाम सात दिन के भीतर ही मिलने लग जाते है : 

अब में वह मनुष्य नहीं हूँ की अपना संकल्प बदलता रहता हूँ | मैंने पक्का इरादा कर लिया है की दूसरो की सम्मति से कदापि अपना निश्चय नहीं बदलूँगा | में अब कभी भी अपने भाग्य और किस्मत को दोष नहीं दूंगा | में जो कुछ भी निश्चय करता हूँ उसको ह्रदय में पक्का और स्थिर कर लेता हूँ | मेरे निश्चय से मुझे कोई नहीं डिगा सकता है | जिनकी इच्छा शक्ति दुर्बल होती है , हिचकिचाते रहते है, और आगे पीछे करते रहते है किन्तु मुझसे यह आदत सर्वथा दूर हो गयी है | और अब में निश्चित सिद्वांत का व्यक्ति हूँ | दूसरो के अनिष्ट विचार मुझे प्रभावित नहीं कर सकते है | जो विचार मेरे सम्मुख उपस्थित होता है उस पर में पूर्ण रूप से विचार करता हूँ और खूब अच्छी प्रकार समझ बूझ कर अपना निश्चय स्थिर करता हूँ | में अपने निश्चय के विरुद्ध कोई काम नहीं करता | में अपने हृदय में किसी भी भ्रम को , संशय शंका को , वहम को , संदेह को कभी स्थान नहीं देता |

कोई भी शुद्र और निकृष्ट विचार मेरे हृदय में आरूढ़ नहीं रह सकता | में परिस्थितियो का दास नहीं हूँ | में कभी भी निश्चित मार्ग से एक कदम भी पीछे नहीं हटता | अप्रिय प्रसंग और परिस्थिति मुझे अपने दृढ निश्चय से चलायमान नहीं कर सकती | संसार की बाहरी वस्तुओ और साधनों पर में आश्रित नहीं रहता | में अपने आप की शक्ति पर ही आश्रित हूँ | मुझे अपने निश्चय में दृढ़ता है , स्थिरता है , इसलिए में अपनी सब मानसिक अवस्थाओ का स्वामी हूँ | में अपने भाग्य का विधाता हूँ | मेरे मानस क्षेत्र में व्यर्थ का मानसिक संग्राम उधम नहीं मचाता | मुझे कोई मानसिक व्यथा परेशान नहीं करती क्यों की परस्पर विरोधी इच्छाए मुझ में नहीं उठती | मेरे अंतर कर्ण में सदा सर्वदा सुमति की पवित्र धरा बहती है और मेरी इच्छा शक्ति को बलवती बना रही है | जिससे में अपने जीवन का स्वामी बन रहा हूँ |  

Wednesday, November 9, 2011

Succes of human life

मानव जीवन की सफलता के संदर्भ में महाकवि तुलसीदास जी ने  श्री राम चरितमानस में लिखा है कि:-

चौपाई(1):-

                              बड़े   भाग्य  मानस  तनु  पावा !
                               सुर  दुर्लभ  सद  ग्रन्थन गावा !!


चौपाई(2):-

                               साधन  धाम  मोक्षकर  द्वारा !
                               पायन जो  परलोक संवारा !!

चौपाई(3):-

                              नर तनु पाय विषय मन देही !
                              पलटी सुधा ते नर विष लेही !!

चौपाई(4):- 
                        
                         जो न तरहि भाव सागर, नर समाज अस पाय !
                         सो कृत निंदक मंद मति, आतम हनि गति जाय !!



भावार्थ:-  अर्थात किसी जीव को बड़े भाग्य से, कितने ही जन्मों के पुन्यकर्मो के फलस्वरूप मनुष्य जीवन मिलता है! अत: इसको व्यर्थ ही गवाना नही चाहिए,  इस जीवन को प्रभु के चरणों में अर्पित करना चाहिए ! और जो भगवत्कृपा से ऐसे मनुष्य शरीर को पाकर संसार  सागर से  पार होने का प्रयास नहीं करता है, वह घोर निंदक मंदमति आत्म हत्यारों कि गति प्राप्त करता है ! जिसके लिए उपनिषदों में कहा गया है:-

                                          असूर्या: नामते लोका: अन्धेन तमसा  बृता: !
                                     तान्स्ते  प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्म हनो जना: !!
            
                              

Saturday, November 5, 2011

Direction of life

In English:-

                    Karmanye va dhikaraste, ma phaleshu kadachan !

In Hindi:-

                    कर्मण्ये वा धिकारस्ते मां फलेषु कदाचन !


भावार्थ:- भगवान कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहते है जी हे पार्थ तुम केवल अपना कर्म करते रहो, फल की इच्छा मत करो ! अत: मनुष्य को चाहिए की वो निरंतर फल की इच्छा किये बिना अपना कर्म करे !

Universal Truth

कर्म क्या है :-


(1)चौपाई:-

         काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता !
         निज कृत करम भोग सबु भ्राता !!

भावार्थ:- महाकवि तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरित मानस के अयोध्या कांड में श्री लक्ष्मणजी निषादराज से कहते है- कि हे भाई ! कोई किसी को सुख दुःख देने वाला नहीं है, सभी लोग अपने किये हुए कर्मों का फल भोगते है ! अर्थात जैसी करनी वैसी भरनी !

(2)चौपाई :-

             कर्म  प्रधान   विश्व  करि  राखा !
             जो जस करहि सो तस फलु चाखा !!

भावार्थ:- अर्थात इस संसार में कर्म ही प्रधान है, जो जैसा करता है वैसा ही फल पाता है ! 
               "जैसी करनी वैसा फल, आज नहीं तो निश्चय कल !"


भगवतगीता शलोक:-
           
                 यादृशं  कुरुते कर्म,  तादृशं फलमश्नुते !
                                           और 
                 अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं ! 

भावार्थ:- गीता में भगवान कृष्ण कहते है कि मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है !
 और मनुष्य  को उसके अच्छे और बुरे कर्मो के फल अवश्य ही भोगने पड़ते है !
              इसलिए कहावत है कि "बोया पेड़ बबूल का, आम कहा ते खाय "!

Nature of kaliyugi people's

In English


Jhunthhahi  lena  jhunthhahi  dena !
Jhunthhahi  bhojan  jhunth  chabena !!

In Hindi

झून्ठ्ही  लेना  झून्ठ्ही  देना  !
झून्ठ्ही   भोजन  झूंठ  चबेना !!


भावार्थ:-यह चौपाई रामचरित मानस के उत्तर कांड से है तुलसीदास जी ने कलियुग के सन्दर्भ में कहा था की कलियुग आने पर मानव को किसी से कोई प्रेम नहीं रहेगा, वह खुदगर्ज हो जायेगा, और उसका यही काम होगा,झूंठ बोलना, लोगो को बहलाना, झूंठा खाना, और झूंठ ही उसका सबकुछ होगा !

Sunday, October 23, 2011

Mantra of Happiness in Life

जब ते राम ब्याह घर आए |
नित नव मंगल मोद बधाए ||

इस मन्त्र का नित्य जाप करने से जातक को आनंद मंगल मिलता है | इसको रोज़ १०८ बार करना चाहिए , बहुत लाभ होगा |

Monday, September 19, 2011

Swar Vigyan

हमारे शरीर में दो स्वर होते है , नाक के दाहिने (right hand side) से चले वाले स्वर को सूर्य स्वर कहते है और बाए तरफ से चलने वाले स्वर को चन्द्र स्वर कहते है | इसका पता लगाने के लिए के कौन सा स्वर चल रहा है हमे अपनी अंगुली से नासिका की एक तरफ दबाकर दूसरी तरफ से सांस लेनी चाहिए , फिर येही कार्य दुसरे हाथ की अंगुली से पहली नासिका दो दबा के करे , जिस तरफ से आप सांस आसानी से ले पा रहे हो वही स्वर चल रहा होता है |

निचे मैंने एक तालिका बना दी है | अगर आप इसके हिसाब से अपने कार्य शुरू करेंगे तोह वोह कार्य आपके लिए लाभकारी होग़े |
day noon night
Sudnay Right Left
Monday Left Right
Tuesday Right Left
Wednesday Left Right
Thursday Right Left
Friday Left Right
Saturday Left Right